जैन धर्म के भक्तामर स्त्रौत भक्ताम्बर की रचना आचार्य मानतुंग जी ने की थी, भोपाल से करीब 30 किमी दूर स्थित भोजपुर नगरी राजा भोज के नाम से प्रसिद्ध है, लेकिन यहां जैन आचार्य मानतूंग जी का समाधि स्थल भी है। आचार्य मानतुग जी जिन्हें मानतुंगाचार्य भी कहा जाता है ने इसी स्थान पर तपस्या की थी और यहीं उनकी समाधि भी हुई थी। इस स्थान पर राजा भोज के ही काल में 11 वीं शताब्दी में जिन मंदिर बनवाया गया जहां भगवान शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ जी की प्राचीन प्रतिमाएं विराजित हैं। यह स्थान अब भोजपुर में श्री दिगम्बर जैन अतिषय क्षेत्र शांतिनगर कहलाता है।
 |
| आचार्य मानतुंग की समाधि |
11 वीं शताब्दी में धार नगरी में राजा भोज राज करते थे, वे संस्कृत साहित्य एवं काव्य में प्रगाढ रूचि वाले राजा था, उनके राज में संस्कृत ही राजभाषा थी। एक बार राजा भोज के दरबार में किसी ने कविवर धनंजय की खूब प्रशंसा करते हुए उन्हें शब्दकोष की संज्ञा दी, इस पर राजा के दरबारी कवियों ने द्वेषवश कविवर धनंजय जी को अपमानित करने की मंशा से कहा कि धनंजय जी क्या, उनके गुरू को ही दरबार में बुलवा लीजिए हो जाए शास्त्रार्थ, सब भ्रांतियां दूर हो जाएंगी। राजा भोज जानते थे कि धनंजय जी ही जब संस्कृत के इतने बडे विद्वान हैं तो उनके गुरू तो वाकई और महान होंगे, उनके दरबार में आने से निश्चित रूप से संस्कृत और दरबार का ही मान बढेगा। इस महान शास्त्रार्थ को देखने की इच्छा से राजा ने अपने दूत को भेजकर आचार्य मानतुंग को राजसभा में आने का निमंत्रण दिया, दूत ने आचार्य को विनम्रता पूर्वक राजाज्ञा सुनाकर उनसे चलने को निवेदन किया, इस पर आचार्य ने भी सहजता से उत्तर दिया कि भाई, राजसभा से हमारा क्या लेना-देना है, हम न तो राजा से किसी धन, पद या अन्य चीजों की अपेक्षा है और न ही याचना। हम कोई राज की चमक-दमक से भी हमें कोई वास्ता नहीं है, इसलिए हमारा वहां जाने का कोई औचित्य नहीं है। हम राजसभा में नहीं जा सकते। आचार्य का यह उत्तर दूत न राजा को सुना दिया। राजा ने फिर दूत को भेजा और राजसभा में आने का अनुरोध किया, लेकिन आचार्य मानतुंग ने फिर राजसभा में आने का कोई प्रयोजन नहीं कहकर उसे वापस कर दिया, इसके बाद दरबारी विद्वानों ने राजा के कान भरना षुरू किया और इसे राजाज्ञा तथा राजसभा का अपमान बताया, इस पर राजा ने क्रोध में आकर आचार्य को किसी भी तरह सभा में पेष करने को कहा। राजाज्ञा से सैनिक आचार्य को पकड लाए और राजसभा में खडा कर दिया। उपसर्ग समझकर आचार्य राजसभा में भी मौन रहे और राजा की किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दिया, इस पर राजा के विद्वानों ने राजा के समक्ष आचार्य को घमंडी और अज्ञानी बताते हुए उसे सजा देने को कहा तो राजा ने उन्हें लोहे की जंजीरों से बांधकर धार जिले के ग्राम आहू में कोठरियों के अंदर बंद कर ताला लगाने और पहरा देने को कहा। राजाज्ञा सुनकर आचार्य तो विचलित नहीं हुए और मौन ही रहे लेकिन पूरे नगर में हाहाकार मच गया। आचार्य मानतुंग को तीन दिन-रात काल कोठरी में डाल दिया गया, वे बंदीगृह में ध्यान में लीन हो गए, चौथे दिन आदिनाथ ऋषभदेव का ध्यान करते हुए उन्होंने 48 श्लोकों की रचना शुरू की। इनमें से प्रत्येक श्लोक इतना शक्तिशाली था कि हर श्लोक की रचना के साथ ही बंदीगृह का एक-एक ताला टूटता गया और 48 श्लोक पूरे होते ही बंदीगृह का अंतिम ताला भी टूट गया और आचार्य मुक्त हो गए। यही 48 श्लोकों का ग्रंथ भक्तामर या आदिनाथ स्त्रोत कहलाया। जैसे ही सैनिकों ने यह चमत्कार देखा वे घबराए हुए राजा के दरबार में पहुंचे और पूरी घटना के बारे में बताया, इस पर राजा ने आचार्य से क्षमायाचना की उनसे श्रावक का व्रत लिया और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार भी किया।
 |
| यही मानतुंगाचार्य भोजपुर में तपस्या में लीन रहे, वे जिस शिला पर बैठकर तप करते थे वह अब भी सिद्धशिला के रूप में भोजपुर में मौजूद है, वहां अब तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा स्थापित कर दी गई है, |
यही मानतुंगाचार्य भोजपुर में तपस्या में लीन रहे, वे जिस शिला पर बैठकर तप करते थे वह अब भी सिद्धशिला के रूप में भोजपुर में मौजूद है, वहां अब तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा स्थापित कर दी गई है, जबकि शांतिनाथ मंदिर और प्रतिमा के समीप ही आचार्य मानतुंग की समाधि भी बनी हुई है। भक्तामर आज भी जैन समाज के घर-घर में पढा जाता है, लेकिन कम ही लोगों को पता है कि इस भक्तामर की रचना करने वाले मानतुुंगाचार्य जी का धार के ग्राम आहू जहां उन्हें बंदी बनाकर रखा गया था, वहां से और भोजपुर में तपोस्थली तथा उनकी समाधि के नाते गहरा ताल्लुक है। भोजपुर में अब मानतुंगाचार्य जी का यह तपोस्थल और समाधि स्थल श्री शांतिनाथ अतिशय क्षेत्र के रूप में विकसित है जहां 11 वीं शताब्दी का जिन मंदिर और जिनबिम्ब विराजित है।
Post a Comment