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शनिवारवाड़ा का वह दृश्य जहां कभी महल हुआ करता था, अब केवल नींव के पत्थर बचे हैं |
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शनिवारवाड़ा के दिल्ली दरवाजे पर रखी तोप |
शनिवार वाड़ा के चौतरफा किलेनुमा बुर्ज और मजबूत चहारदिवारी के साथ ही परिसर में पानी के कुंड और फव्वारों की मौजूदगी अभी भी दिखाई देती है। ऊपरी मंजिल पर जाने वाली सीढिय़ां और जगह-जगह लकड़ी के खम्बों को लगाने के लिए बनाए गए छिद्र अभी भी मौजूद हैं। सीढिय़ों से उतरते-चढ़ते वक्त अब भी यह अहसास होता है कि कभी इन्हीं सीढिय़ों से महान योद्धा बाजीराव, उनकी पत्नी काशीबाई और पेशवा बाजीराव की प्रेमिका मस्तानीबाई का आना-जाना होता होगा। इसी दिल्ली दरवाजे से पेशवा बाजीराव अपने घोड़े पर सवार होकर युद्ध के लिए निकलते होंगे और बाहर विशाल परिसर में उनकी सेना उनके आदेश का इंतजार करती होगी और जब पेशवा युद्ध जीतकर वापस शनिवारवाड़ा पहुंचते होंगे तो इसी द्वार पर काशीबाई उनके स्वागत में मंगल थाली और आरती का दीपक लिए स्वागत के लिए उत्सुक रहती होंगी। यहीं शनिवार वाड़ा का हुजूम अपने वीर पेशवा की जयकारों के साथ उन पर पुष्प वर्षा करता होगा। पेशवा के पुत्र नानाजी और रघुनाथ राव के साथ ही मस्तानी से उत्पन्न कृष्णाजी (शमशेर बहादुर) दौड़ते-खेलते होंगे, उनका बचपन यहीं बीता होगा। गणेश दरवाजे के पास ही श्रीमंत पेशवाई गणेश का मंदिर मौजूद है, इस मंदिर मेंं पेशवा और उनका परिवार गणेश जी की आराधना पूजा करने के लिए जाता था। लेकिन पेशवा युग में लिखे गए इतिहास के इन स्वर्णाक्षरों को भी जैसे मिटा दिया गया। 1827 में इस शनिवार वाड़ा में भीषण आग लगी और पत्थरों की चहारदिवारी तथा पत्थरों की नींव पर लकडिय़ों पर खूबसूरत नक्काशी से बना यह महल जलकर राख हो गया। आग का कारण क्या था, यह पता नहीं चल सका, यह किसी साजिश के तहत लगाई गई आग भी मानी जाती है। इस आग के बाद शनिवारवाड़ा में कुछ बचा रह गया तो दिल्ली दरवाजे के ऊपर का कुछ हिस्सा और पत्थरों की चहारदिवारी तथा नींव के पत्थर सहित पेशवा की यादें। बताया जाता है कि जब बुंदेलखंड की विजय के बाद मस्तानी पुणे आईं थीं तो पहले उन्हें पास ही किसी और स्थान पर रखा गया था, लेकिन बाद में बाजीराव उन्हें शनिवारवाड़ा ही ले आए थे और वाडे के जिस हिस्से में उनका निवास बनाया गया था, उसे मस्तानी महल कहा जाने लगा था, यानि मस्तानी महल इसी वाड़े में मौजूद था। यकीनन इसी महल के पास वाले दरवाजे को मस्तानी दरवाजा कहा जाता है।
सदियां बीत गईं, लेकिन मस्तानी और बाजीराव की कुछ निशानियां पुणे के स्थानीय राजा दिनकर केलकर म्यूजियम में अब भी मौजूद हैं। बाजीराव के बाद उनके बड़े पुत्र नानाजी ने पेशवा की गद्दी संभाली और बाद में जब नानाजी के पुत्र नारायणराव यहां के पेशवा बने तो बाजीराव के छोटे पुत्र और नारायणराव के चाचा रघुनाथराव ने उन्हें अपने रास्ते से हटाकर खुद पेशवाई हासिल कर ली। नारायणराव की हत्या कर दी गई लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनकी आत्मा अभी भी यहां भटकती है। यहां के लोगों की धारणा है कि अभी भी शनिवारवाड़ा में नारायणराव की चीखें सुनाई पड़ती हैं। इसलिए लोग इसे भुतहा महल भी कहते हैं। लेकिन 1919 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन आ जाने के बाद से यहां का रखरखाव शुरू हुआ है और शनिवारवाड़ा अब रोजाना हजारों पर्यटकों के लिए खुला रहता है। सुबह 9.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक यह शनिवारवाड़ा खुलता है और यहां 20 रुपए के शुल्क पर प्रवेश कर इतिहास के पन्नों को देखने और समझने का मौका मिलता है।
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