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विदिशा में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की बधाई पर उत्साह से लहंगी नृत्य करते ग्रामीणों की टोली |
लहंगी नृत्य क्षेत्र का ऐसा लोकनृत्य है जिसमें लोक गीतों और वाद्य यंत्रों की जब संगत होती है तो 10 साल के बच्चे, 20 साल के युवा, 50 के अधेड़ और 85 साल के बूढ़े भी उम्र की तमाम मर्यादाओं और लिहाजों को छोडकऱ मैदान में उतर आते हैं। ढपले की थाप, लोक गीतों के स्वर और हाथ में गमछा लहराते हुए हर उम्र के लोग एक हाथ में डंडा थाम इस लोक नृत्य में झूमते हुए युवा बन जाते हैं। किसी भी चौराहे, चौपाल, बीच सडक़, मंदिर परिसर या आंगन ही इनके लिए कला का मंच बन जाता है और कभी बैठकर, कभी धीमे धीमे गोला बनाकर ढपले की थाप पर थिरकते हुए ये लोकनृतक ढपले की थाप तेज होते ही जोशीले होकर कूद कूद कर नाचने लगते हैं। खासकर इसमें 70-80 साल के बुजुर्गांे का पूरे जोश से और युवाओं की तरह थिरकना, कूदना और मचलना बेहद प्रभावित करता है। बिना थके, बिना रुके, पूरे जोश में यह नृत्य घेरा बनाकर इस तरह चलता है जैसे कोई रील सामने चल रही हो। इसमें भी जब यह लंहगी नृत्य पूरे शबाब पर होता है तो इन बच्चे, युवा और बुजुर्ग कलाकारों का एक ही रिद्म में पूरे शरीर को खासकर तरह के अंदाज में लहराते हुए ढपले की थाप पर अपने दोनों ओर के साथियों के साथ डंडियों को टकराते हुए उनकी सुमधुर आवाज के साथ जब नृत्य करते हैं तो इस लोककला की खूबसूरती उमड़ पड़ती है। इसके साथ ही खासकर ग्रामीणों की इन टोलियों में धर्म और जाति का कोई बंधन नहीं होता। यूं भी यह नृत्य मप्र में सावन और भादौं के महीने में ही ज्यादा होता है। भुजरियों का जुलूस हो या फिर कृष्ण जन्माष्टमी का बधाई जुलूस लोक नृतकों के रूप में ग्रामीणों की ये टोलियां समां बांध देती हैं। जब हिन्दू-मुस्लिम और अन्य सभी समाज और जातियों के लोग पूरे उत्साह से लहराते हुए एक ही रिद्म में लहंगी में नाचते हैं तो लगता है कि कहां इस देश को धर्म, समाज और जातियों में बांट रखा है, हमारी संस्कृति तो हर धर्म में, हर रंग में रंगकर उत्सव मनाने की है, क्योंकि भारत तो है ही उत्सव, संस्कृतियों और परम्पराओं का देश।
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