आचार्यश्री विद्यासागर महाराज के शिष्य और विदिशा में चातुर्मास कर चुके वरिष्ठ मुनिश्री सौम्यसागर महाराज स्वभाव से भी अपने नाम के ही अनुरूप सौम्य हैं। धर्म और समाज को लेकर कुछ शंकाओं के समाधान की जिज्ञासा लेकर उनसे साक्षात्कार का भाव हुआ तो उन्होंने जैन धर्म, नियमों और भ्रांतियोंको लेकर जनसामान्य के मन में उठने वाले सवालों के जवाब बेबाकी से दिए। शंकाओं का समाधान भी किया। जैन समाज के अनुष्ठानों में लगने वाली बोलियों पर वे कहते हैं कि धर्म बहुत दुर्लभ चीज है, इसका सम्मान धन पर कुंडली मारकर बैठने वालों को नहीं बल्कि धन का त्याग करने वालों को मिलना चाहिए। सम्मान रागी को क्यों, त्यागी को क्यों नहीं? इसके साथ ही उन्होंने मुनियों के आने पर बारिश न होने जैसी भ्रांति और युवा पीढ़ी के धर्म पालन के नियमों से विमुख होने आदि विषयों पर खुलकर बात की। प्रस्तुत हैं मुनिश्री सौम्यसागर महाराज से गोविंद सक्सेना की हुई चर्चा के प्रमुख अंश-
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मुनिश्री सौम्यसागर महाराज |
उत्तर- हर व्यक्ति के मन में रोजाना विरक्ति के भाव आते ही हैं। व्यक्ति पूरी तरह रागी ही होता है, लेकिन जिन्दगी की भागमभाग से ऊबना ही वैराग्य है। जिस क्षण वैराग्य की चिंगारी को हवा मिल जाती है, तो वह ज्वाला बन जाती है।
प्रश्न- ऐसा क्या होता है कि कोई युवा लाखों का पैकेज छोडकऱ वैरागी हो जाता है ?
उत्तर- आप जो करते हैं उसका उद््देश्य क्या है ? गृहस्थ हैं इसलिए अर्थ उपार्जन? अर्थ से क्या मिलेगा, सुख-सुविधा? सुख सुविधा से क्या पाना चाहते हैं संतुष्टि? संतुष्टि से क्या पाना चाहते हैं शांति? हर काम का अंतिम लक्ष्य जीवन में शांति पाना है। किसी दुर्जन से भी पूछा जाए तो वह भी यही कहेगा। हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य शांति पाना ही है, लेकिन हर व्यक्ति उसे अलग तरीके से पाना चाहता है। शांति को पाने के लिए जीवन में तरीके बदलने होत हैं, इरादे नहीं। जब यही सोच लक्ष्य बन जाती है तो फिर कुछ सोचा विचारी नहीं होती और सब छोडकऱ रागी भी चल पड़ता है बैरागी बनने।
प्रश्न- बहुत से लोगों को भ्रांति है कि मुनि आते हैं तो बारिश बंद हो जाती है?
उत्तर- धारणाएं बनने में देर नहीं लगती, लेकिन धारणाएं टूटने में सदियां लग जाती हैं। मुनिसंघ जब यहां नहीं आया था तब यहां कैसी भीषण गर्मी पड़ रही थी। हम जब नेमावर में थे तब तक वहां बारिश होती रही, जैसे ही नेमावर छोडा वहां बारिश रुक गई। हमें पूरे रास्ते बारिश नहीं मिली। लेकिन जैसे ही विदिशा आना हुआ बारिश शुरू हो गई। इसलिए मैं कहता हूं कि धारणाएं बनने में देर नहीं लगती, पर टूटने में सदियां लग जाती हैं। कब-कब साधु के आने के बाद वर्षा नहीं हुई ये लोग याद रखते हैं, लेकिन साधु के आने के बाद वर्षा हो रही है, ये कोई याद नहीं रखता। उस एक लम्हे को जोडकऱ प्रचारित किया जाता रहेगा कि कब-कब पानी नहीं गिरा था। यह सब ए संप्रदाय भा्रमक प्रचार कर रहा है, लेकिन हम साधु प्रचारक नहीं साधक हैं।
प्रश्न- नए साधुओं को कड़ाके की सर्दी में बड़ी परेशानी आती होगी, कैसे निपटते हैं उससे?
उत्तर- यह सही है, शीत की बाधा रात को सबसे ज्यादा होती है। सोते समय शरीर ठंडा होता है, उसमें भी सोने के लिए एक लकड़ी का ऐसा पाटा मिले तो ठंड तो सताती ही है। उसी समय असली परीक्षा होती है, लेकिन यह परीक्षा ही है, जो अच्छे अंक दिलाती है। जब प्रतिभाशाली विद्यार्थी को अच्छे अंक मिल रहे होते हैं तो वह हर कठिनाई का सामना कर लेता है।
प्रश्न- जैन धर्म में हर धार्मिक कार्य की बोली लगती है। गरीबों को धर्म पालन का अधिकार नहीं है क्या?
उत्तर- अच्छा प्रश्न है। सभा में हजारों लोग रहते हैं, इनमें से अधिकांश लोग धन पर कुंडलिनी मारकर बैठे रहते हैं। सवाल बोली लगाने का नहीं, बल्कि मंच पर बुलाकर सम्मान करने का है। मंच पर उसे ही बुलाया जाता है जो अपनी कुंडलिनी को ढीला करके धन का त्याग करता है। यानी, धन वालों को नहीं, धन का त्याग करने वाले को सम्मान के लिए बुलाया जाता है। अब बताएं कि क्या यह गलत है, त्यागी का सम्मान होना चाहिए या रागी का? करोड़पति द्वारा दिए लाखों के दान का भी उतना महत्व नहीं है, जितना गरीब के सामथ्र्य से अधिक के दान का है।
प्रश्न- दिगम्बर वेष, खुद केश लोंच, एक वक्त आहार और हजारों मील का पैदल सफर। इस युग में भी इतनी घोर तपस्या कैसे?
उत्तर- ये कम में भी काम चलाने का अर्थशास्त्र है। अगर आपे मोबाइल की एक सिम बंद हो जाए तो भी मन में अशांति पैदा हो जाती है। सब कछ छोडऩा तो दूर की बात है, कम में काम चला लो यही महत्वपूर्ण है। वेस्ट मैनेजमेंट सबसे बड़ी समस्या है। वेस्ट होने से रोकने के लिए बस आपको अपनी अपेक्षाओं को कम करना पड़ेगा। व्यक्ति किसी वस्तु को पाने के लिए हाथ मारता है, लेकिन उसे हाथ मारकर भी खुशी नहीं मिलती तो देखो लात मारकर( हर चीज को ठुकराकर ) खुशी मिलती है। साधु सबकुछ त्यागकर भी पहले से ज्यादा खुश रहते हैं। यही है कम में भी काम चलाने का अर्थशास्त्र।
प्रश्न- सदियां बदल गईं लकिन तपस्या का दौर वही है?
उत्तर- आप लोग ही बोलते हो कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। तो बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ेगा। सब कुछ पाने के लिए सब कुछ खोना पड़ेगा। लेकिन सब कुछ क्या? मेरी शांति में ही मेरा सब कुछ है। इसलिए शांति के लिए आज भी वही हो रहा है, आगे भी होगा। लक्ष्य तो एक ही है, तरीके कुछ भी हो सकते हैं।
प्रश्न- जैन धर्म के नियमों का साधु, वृद्ध और कुछ श्रावक ही पालन कर रहे हैं, ज्यादातर लोग नियमों से दूर होते जा रहे हैं?
उत्तर- शिथिलाचार आज की देन नहीं है। शिथिलाचार नहीं होता तो संकल्पों को कठोरता से पालन करने की बात नहीं होती। संकल्प लेने मात्र से ही काम नहीं चलता। फिर अब काल जैसे जैसे आगे बढ़ता जा रहा है, ढलान भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में अधर्म का प्रचार प्रसार ज्यादा होगा और धर्म को मानने वाले बहुत कम हो जाएंगे। जो दुर्लभ वस्तु होती है वह सीमित होती है। धर्म बहुत दुर्लभ है, उसे पाने के लिए प्रयास तो करना पड़ता है।
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